रात और नज़म
कल रात एक नज़्म भूल बैठी फिर से
कल रात एक नज़्म भूल बैठी फिर से
वही खुले आकाश के नीचे
तारों की छांव में,
धीरे-धीरे कुछ गुनगुना रही थी
तो कुछ बुद बूदा रही थी,
घर से एक जोरदार आवाज आई
रात बहुत हो गई है कोई आया है मिलने,
पर मैं मन ही मन बहुत खुश थी कि
मेरी एक और कविता एक और नज़्म पूरी हो रही थी,
घर आकर देखा तो कुछ दोस्तों का
ताना-बाना था, कुछ दोस्त यूं ही
अचानक आ गए थे चाय पर दिल बहलाने,
देर रात मैंने कलम कागज़ निकाला
लिखने को वो खूबसूरत वो नज़म,
पर याद करने पर भी याद नहीं आई वो मुझे,
भूल बैठी वह अपनी खास नज़म
खूब सोचा तब बस यह याद आया तारे थे
आकाश थे और खुली हवा का झोंका,
और बस कुछ और याद नहीं रहा,
कल देर रात भूल बैठी फिर अपनी वो ख़ास नज़म,
कल फिर से उसी जगह पर जाऊंगी क्या पता
कुछ भुला फिर से याद आ जाए,
अक्सर बचपन में यही कहा करते थे
जहां कुछ भूल जाते थे उसी जगह जाकर
याद किया करते थे, क्या पता मेरी वह प्यारी
नज़म मुझे भी उसी जगह फिर से याद आ जाये...
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