“कुछ लोग बड़े हो गए…”
पुराने दिन अक्सर बिना बुलाए याद आ जाया करते हैं। जब हम बच्चे थे — न कोई दिखावा, न कोई दूरी… बस एक ही छत के नीचे भरपूर प्यार, और गर्मी की छुट्टियों में भरपूर शोरगुल। एक कमरे में जगह कम पड़ जाती थी, पर हम बच्चों के बीच मोहब्बत कभी कम नहीं पड़ती थी। रात भर जागना, हँसी के ठहाके, और जिद — कि सब साथ ही सोएँगे। उसी तंग जगह में हमको खुशियाँ चौड़ी लगती थीं। लेकिन समय आगे बढ़ा। कुछ बच्चे बड़े हुए… और कुछ बहुत ज्यादा बड़े हो गए। अब वही लोग, जिनके साथ बिना जगह माँगे सो जाते थे, एक लड़की से —पूछते हैं, “मायके में रहने की जगह है? कमरे सब भर चुके हैं… तुम कहाँ सो पाओगी? अब क्या रात का खाना खाकर फिर अपने घर वापिस जाओगी..” मैंने सहजता से हँसकर कहा, “घर में जगह की चिंता मत करो, मुझे तो आज भी बैठक में ज़मीन पर बिछे गद्दों पर सबके साथ सोना सबसे ज्यादा पसंद है। और अजीब बात ये है… जब मैं वहाँ सोती हूँ, सब अपने–अपने कमरों से निकलकर वहीं आ जाते हैं। चाय की चुस्कियाँ, पुरानी बातें, और वही पुराना घर फिर से जवान हो उठता है।” सच तो यह है— घर में जगह कम या ज्यादा होने का फैसला कमरों से नहीं, दिलों से होता है।...